Sunday, October 21, 2012

हम और भ्रष्टाचार

एक के बाद एक -
भ्रष्टाचार परत दर परत खुलता ही जा रहा है.....
क्या वाकई दूसरे लोग इस के दोषी हैं.....
क्या सच में ठीकरा इन सब के सर फूटना चाहिए???
क्या कहीं न कहीं हम सब का इस में योगदान नहीं है???
एक कहानी याद आती है कि एक चोर को जब सजा हुई तो उस ने ये कहते हुए  अपनी माँ से मिलने से इनकार कर दिया कि जब में छोटी छोटी चोरी करता था इन्होने मुझे रोका नहीं...
बाल मन पर चोरी कोई गलत बात है ऐसा छाया ही नहीं.....
आज भ्रष्टाचार का भी वही स्वरुप है......
आम आदमी इसे हमारे डीएनए में है ऐसा मानता है...
क्या वाकई ये हमारी राग राग में समा चुका है???
हम घर आँगन  बुहारते हैं...कचरा हमारे घर के बाहर फैंक देते हैं....
आज हमें रेलवे का टिकेट चाहिए - कौन लाइन में लगे??
हम थोडा बहुत किसी के हाथ में रख कर टिकेट जल्दी प्राप्त कर लेते हैं...
फलां जगह हमारी जान पहचान से काम निकाल लेते हैं....
यदि क़ानून का उलंघन करते हैं तो कुछ दे दिला के मामला रफा दफा कर देते हैं .....
वोट देते हुए चाँद रुपयों  में बिक जाते हैं.....
और क्या क्या गिनाएं.....
छोटे भ्रष्टाचार से बड़े भ्रष्टाचार की ओर कदम कब बढ़ जाते हैं पता ही नहीं चलता.....
कुछ देर चिंतन मनन कीजिये ....
क्या पता इस का तोड़ हमारे ही हाथ में हो???
न कुछ देने लेने का रिवाज़ बनाएं और न इस भंवर में फंसें......
अपने गिरेहबान में झांकिए......
इस कैंसर का तोड़ हम और सिर्फ हम हैं.....
ज़रुरत है तो हमें अंगद के पाँव के सामान अडिग रहने की इच्छाशक्ति की......
वन्दे मातरम्.....

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