Monday, September 24, 2012

असमंजस

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला......
किस पथ से जाऊं असमंजस में है वो  भोला भला 
अलग अलग पथ सब बतलाते सब 
पर मैं ये बतलाता हूँ
राह पकड़ तू एक चला  चल..
पा जाएगा मधुशाला........
आज के सन्दर्भ में हरिवंश राय जी की  सारगर्भित रचना.......

आज हर भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए आन्दोलन रत कार्यकर्ता असमंजस की स्थिति में है....
ये विडंबना ही है कि सद्पथ पर चलने वालों में एकता का अभाव है और भ्रष्ट एक हो तमाशा देख रहे हैं......
सड़क से संसद तक की लड़ाई है......
व्यवस्था परिवर्तन हेतु संग्राम हर पथ पर लड़ा जाना आवश्यक है......
कोई एक पथ पकड़ रहा है,कोई दूसरा...
ठीक है ..
परन्तु
एक पथ दूसरे से बड़ा और सही है...ये किस आधार पर कह सकते हैं??
अरे हम तो अलग अलग लड़ कर अपने आप को कमज़ोर दिखा रहे हैं....
हर राह एक मंजिल तक तब ही पहुंचेगी जब हम अपने अपने पथ पर आगे बढ़ते हुए इक संकल्प मन ही मन ले रहें कि जब ज़रुरत पड़े तो एकता की शक्ति, बिना किसी अहम् के,  सड़क से संसद तक दिखा देंगे....
मंजिल एक है...
राह अलग है तो क्या हुआ...
संकल्पित रहें कि जब देश को ज़रुरत हो तो,एक हो, मंजिल तक हमारे कदम बढ़ेंगे.....

Wednesday, September 19, 2012

आन्दोलन की अलख जगाये रखना है....

संक्रमण काल !!!!!!
नहीं हम ऐसे कह कर इस आन्दोलन की टूटन से अपने आप को दोषमुक्त नहीं कर सकते......
 भारतीय स्वभाव  की कमजोरी हम को ले डूबी......
हम अपने-अपने अहम् में इस कदर डूबे हुए हैं कि अपना देश दोयम दर्जे का स्थान पाता रहा है आदि अनादि काल से.....
जिस व्यक्ति को सूझ-बूझ दिखाते हुए,सब की नैया पार लगानी थी वो ही अपना कर्त्तव्य पूरा न कर पाया......
आन्दोलन को अभी भी सही मार्ग पर रखा जा सकता था.....
ज़रुरत थी कुछ समझ-बूझ और कुछ समझाइश की.....
एक मातृ -संगठन होता और एक दूसरा उस की एक शाखा......
उन को जोड़े रखता .....
एक वट-वृक्ष ......
अपने सबल कन्धों पर बोझ ढ़ोता सब को सही राह दिखाता ......
एक आन्दोलन करता और दूसरा संसद में आन्दोलन-रत रहता.....
दोनों एक दूजे के पूरक......
विकल्प देना ज़रूरी......
लोगों में जागरूकता लाना ज़रूरी.....
एक विकल्प की तैयारी करता ...
दूसरा गाँव गाँव जा कर आम जन को जगाता.....

परस्पर तालमेल से सुखद स्थिति पैदा होती 
और
  देश सेवा का प्रण ले कर आगे आये पूर्ण-कालिक कार्यकर्त्ता देश को अपने देश प्रेम से सराबोर कर जगा देते.....

कर्त्तव्य पथ पर बढ़ते ही रहना था.....

विकल्प ज़रूरी .....

नहीं तो दूसरी पार्टी के प्रत्याशियों को जिता के सदन तक पहुचाने के बाद भी वे पार्टी लाइन फोलो  करते तो हमारा उद्देश्य पूरा न हो पाता.....

निर्दलीय को जिताते हैं तो उस के जीतने के बाद दूसरे दल में जा मिलने की तलवार लगातार लटकती रहती है....

अपनी पार्टी बनाने से हम उन पर दबाव बना पाने की स्थिति में होते हैं...
यदि कोई सांसद या विधायक जन भावनाओं के अनुकूल काम नहीं करता तो हम उस पर पार्टी का दबाव बना सकते हैं.....

अब 

एक और बात भी सही है कि आज सम्पूर्ण देश में विकल्प देने की स्थिति में हम अभी नहीं हैं......

दिल्ली को रोल मॉडल बना कर बस वहां चुनाव लड़े जा सकते हैं और सम्पूर्ण भारत के कार्यकर्ता इस में दिल्ली पहुँच कर सहयोग कर सकते हैं....

दूसरी ओर सम्पूर्ण देश में तब तक अलख जगानी चाहिए 
और
डेढ़  साल में काम किया जा सकता है...

आत्म विश्लेषण कर के फिर प्रत्याशी उतारने की सोची जा सकती है....

यदि जागरूकता फैलाने वाले आन्दोलनकारी साथ काम करते जाते हैं  तो धरातल के  काम को बाखूबी अंजाम दिया जा सकता है ....

अभी भी देर नहीं हुई है......

जागो देश वासियों जागो....

एकता ही हमारी शक्ति है....

अहम् का त्याग और देश प्रेम का ज्वार हमें विकास और भ्रष्टाचार मुक्त भारत को बनाने में सहयोग करेगा.....

ज़रुरत है हमें जानने की और मानने की
 कि
 एकता में शक्ति है......

जब जागो तभी सवेरा.....

आज देश का हर जागरूक  नागरिक ठगा सा महसूस कर रहा है.....

नेतृत्व सब की आँखों में कमतर आँका जा रहा है....
आज नेतृत्व के सामने यह चुनौती है कि उस के कर्यकर्ता रेत समान उस के हाथों से फिसल न जाए.....

हमें नेता नहीं धरातल का कार्यकर्ता बन कर काम करना है....

आन्दोलन की अलख जगाये रखना है....

Monday, September 17, 2012

त्याग अहम् का और बदलाव दृष्टिकोण का


संक्रमण  काल  है......
अन्ना जी एक बात पहले दिन से कह रहे हैं.....राजनैतिक विकल्प की ज़रुरत है.....मैं राजनीति में नहीं आऊंगा....बाहर रह कर सब पर नज़र रखूँगा....
इस बात को बार-बार और कई बार दोहरा रहे हैं.....
हर बार उन के कहने का नित नए रूप में विश्लेषण करना??
इन हाथों में मत खेलिए.....
सब लोगों को अलग अलग गुटों में बांटना ???
किसी के हाथों में न खेलिए.....
गुट अलग हो सकते हैं....भावना देखिये....
अभी तात्कालिक आवेश में आ कर एक दूसरे पर कीचड  उछालना बंद कीजिये.....
 देश के लिए की जाने वाली इस लड़ाई को अहम्  की लड़ाई में तब्दील न कीजिये.....
हमारा काम है जोड़ना .....ना कि तोडना......
दूसरा  स्वतंत्रता की लड़ाई एक जुट हो कर ही लड़ी जा सकती है....
कुछ ऐसा कीजिये जिस से सब में निकटता उत्पन्न हो......
हमारी शक्ति हमारी एकता में है......
बंद कमरों में बैठ कर अपना गुबार निकालिए....ये ज़रूरी भी है....
परन्तु
बाहर आइये एक हल ले कर....
एकता का स्वर ले कर...
संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जिस का हल न हो......
ज़रुरत है कुछ त्याग और कुछ बदलाव की....
त्याग अहम् का और बदलाव दृष्टिकोण  का.....
राजनीति के हाथों का खिलौना न बनिए.....
अपनी सूझ-बूझ बरकरार रखिये.......

ऐसा न हो ये लड़ाई हम लड़े बिना ही हार जाएँ.....

Friday, September 14, 2012

लोकतंत्र में हम......

लोकतंत्र ????
विविध परिभाषाएं......
संविधान में,समाज में,राजनैतिक पार्टियों में और प्रचालन में........
व्याख्याएं अनेक पर प्रचलित सिर्फ एक......अपना उल्लू सीधा करना......
आज भारतीय समाज बदलाव के मुकाम पर  बैठा है.....या यूँ कहें कि एक बदलाव के ज्वाला मुखी पर बैठा है और बदलाव के विस्फोट सहित एक नए उपजाऊ लावा की प्रतीक्षा में है......
प्रतीक्षा ???
प्रतीक्षा से कुछ नहीं होना....
अगर अब कुछ होना है तो स्वयं अपने प्रयास मात्र ही काम आने हैं.....
हमें ही छोटी छोटी बातों का ध्यान रखते हुए आज के सामाजिक और राजनैतिक समीकरण बदलने होंगे.....
अपनी आँखें खुली रखनी होंगी और हमारा हर एक कृत्य जो बदलाव ला सकता है उसे अपनी ज़िन्दगी में लाना होगा.....
हमारे छोटे छोटे क़दमों से ही हमारी दुनिया बदलेगी.....ज़मीनी हकीक़त में बदलाव आएगा....
हमें  मजबूरियों का रोना बंद करना होगा.....
अपने प्रभाव क्षेत्र में रहते हुए,जो भी प्रयत्न कर सकें, उन्हें हमें करना है......
बदलाव हम से ही शुरू होगा......

Wednesday, September 12, 2012

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और हम - आज के परिपेक्ष्य में


भारत एक लोकतान्त्रिक देश है...
१९४७ में मिली आजादी के पश्चात हम ने अपने जिस संविधान को अंगीकार किया उस के द्वारा प्रदत मूल अधिकारों में से एक अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का अधिकार भी है....

आज यह अधिकार एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा बन गया है कि सब इस ही आग में कूदते नज़र आ रहे हैं...
हर मुद्दे के दो पहलू तो होते ही हैं परन्तु इस मुद्दे पर लोग बंटे तो नज़र आ ही रहे हैं परन्तु अपनी रोटियाँ सेकते भी दीख पड़ रहे हैं....

चलिए इस आज़ादी को समझा जाए ......

अभिव्यक्ति की आजादी यानी कि यदि देश या समाज में प्रचिलित कोई बात आप को बुरी लगे तो भारत का हर नागरिक उस का विरोध कर सकता है.....

हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे इतना महत्वपूर्ण माना कि स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों में इसे सबसे पहला स्थान दिया.....

200 साल की गुलामी के बाद बड़ी मुश्किल से हासिल हुई है ये आजादी......
ये है बोलने की आजादी, अपनी बात कहने और विचार रखने की आजादी।

इस आजादी को परखने का पैमाना क्या है......

दरअसल ये नीयत और नज़रिए का फर्क है......

हमें देखना पड़ेगा कि हम किस चश्मे से इस आजादी को देखते हैं.....

हम पुराने तराजुओं में इस आजादी को नहीं तोल सकते....

देश की एकता और अखंडता को हानि पहुचाने वाले सभी तत्वों से सरकार को सख्ती से निपटना चाहिए क्योंकि यह राष्ट्र-हित की बात है। परन्तु देश की एकता और अखंडता बनाये रखने की आड़ में सरकार अपनी नाकामी छुपाने हेतु जिस तरह से सरकारी तंत्र का प्रयोग कर रही है उसकी नियत पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक ही है।

सरकार को नींद से जगाने का काम जो विपक्ष नहीं कर सका वो काम सोशल मीडिया और जागृत जनता ने कर दिखाया। परिणामतः सरकार की विश्वसनीयता और उसकी कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिंह खड़े हो गए।
अन्ना जी द्वारा दूसरे स्वतंत्रता आन्दोलन में जो जन क्रान्ति का नारा बुलंद किया गया उस से सरकार आज बौखला गयी है .उसे अपनी कुर्सी खतरे में नज़र आने लगी है इसी लिए शांतिपूर्ण,अहिंसात्मक और गांधीवादी आन्दोलन को कुचलने की नाकाम कोशिश शुरू कर दी गयी है......

अब एक प्रश्न-चिन्ह सब के मस्तिष्क में रह रह कर घूम रहा है....

क्या हमारी सरकार का दमनात्मक रवैया आने वाले आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप का सूचक है ????

Wednesday, September 5, 2012

द कोल ओपरा शो -


कोल-गेट काण्ड ही सिर्फ एक ऐसा घोटाला नहीं है जहाँ भारत की खनिज सम्पदा का बेहताशा दोहन हुआ हो.......
अभी पिक्चर बाकी हैं मेरे दोस्त.......

इन सब पर यदि हम एक वृहद् नज़र डालें तो राजनीति का  कालापन,स्वार्थ और अवसरवादिता 
और
 जनता की उदासीनता और स्वार्थ 
दोनों ही का मुखौटा उतर कर असलियत सामने आ जाती है......

राजनीति आज शीघ्रातिशीघ्र संपन्न बनने का साधन मात्र बन कर रह गयी है......
आज हर व्यक्ति सत्ता और सम्पन्नता की दौड़ में शामिल हो बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहता है.......
ये तो हुई व्याख्या आज की राजनीति की 

अब जनता  ???

राजनीतिज्ञ कौन हैं???

जनता......

समझे  न आप!!!!!!

आगे व्याख्या करना बेमानी है.......

चेतन भगत जी का लेख पढ़ रहे थे जहाँ उन्होंने एक संयुक्त परिवार का उदहारण देते हुए मैनेजर यानी के जनप्रतिनिधियों और मालिक यानी कि जनता का ज़िक्र किया.......
सही ही तो है......
अपार हीरे जवाहरातों के धनी एक संयुक्त परिवार ने अपने में से ही एक सदस्य को  मैनेजर नियुक्त किया और उस को अपनी आपार दौलत संभलवा दी.....
बेचने को नहीं,वरन,उस के स्वयं के  द्वारा तैयार किये गए मापदंडों की कसौटी पर, चयन कर के देने को......

अब शुरू होता है स्वार्थ का एक नंगा खेल.......

अपने चुनिन्दा लोगों में रेवड़ियां बाँट दी जाती हैं.......

परिवार नाखुश हो मैनेजर बदल देता है......

परिणाम वही ढाक के तीन पात........

अब रेवड़ियां दूसरी ओर बंटने लगती हैं.......

मालिक के अपने ऑडिटर से पता चलने पर जब जवाब तलब किया जाता है तो जनाब मैनेजर जो कि अपने आप को परिवार का राजा मानने लगे थे तल्ख़ शब्दों का प्रयोग करते हुए पहले तो नकारते हैं,फिर जोर पड़ने पर दोषारोपण और फिर मालिक को ही नकारने लग जाते हैं......

धीरे धीरे सामने आने लगता है कि हमाम में तो सब ही नंगे हैं.........

अब शुरू होता है आरोप-प्रत्यारोप का दौर......

पहला मैनेजर दूसरे मैनेजर पर ज़यादा लालची होने का आरोप लगता है ..

मोटा  माल  और छोटा  माल की व्याख्या होने लगती है.......

और

 परिवार अब फ्री स्टाइल कुश्ती देखने का मज़ा लेने लगता है......

क्या हम इसे हास्यास्पद कह सकते हैं ?????

नहीं

जहाँ अस्तित्व पर आ बनी हो वह स्थिति हास्यास्पद कैसे होगी ???

आज हमारा देश जिस दोराहे पर खड़ा है उसे हम हास्यास्पद कतई नहीं कह सकते......

हमारी अस्मिता और गौरव भी अब इस लड़ाई से जुड़ गया है......

हमारे मैनेजर पर बाहरी लोग टिप्पणी करते हैं और हम उसे सही देख कुछ नहीं कह पाते......
दबी जुबान से विरोध ज़रूर करते हैं कि किसी भी बाहरी व्यक्ति को टिप्पणी का अधिकार नहीं पर गिरेहबान में मुंह डालें तो इसे सही ही पाते हैं.......

आज का भारत अब उस स्थिति में आ चुका है कि अब तो आर या पार हो कर ही रहे......

क्रान्ति आज की मांग है.......

रक्तरंजित नहीं वरन एक वैचारिक क्रान्ति जो कि धरातल पर उतर कर लड़ी जाए और जो कि भारत की तस्वीर बदल कर रख दे.....

ये संभव होगा इस काली राजनीति का त्याग कर के.....

मालिक की उदासीनता और सेवकों पर उन का आँख मूँद कर विश्वास करना आज देश को एक नारकीय खाई में डाल चुका है.....

ये समय है हम मालिकों के चेतने का और अपने प्राकृतिक साधनों और संसाधनों की होती लूट और दोहन को रोकने का.....

अब हमें अपनी स्वार्थपरता ( जी हाँ हम ही तो स्वार्थी है.....ये राजनीतिज्ञ कहाँ से आते हैं...हम में से ही तो.....)को त्यागना होगा और ऐसे जनसेवकों और जन प्रतिनिधियों की फ़ौज खड़ी करनी होगी जो देश को कम से कम इस  स्वार्थ से बाहर निकाल सकें और जो कार्य सम्पादन हेतु इस शासन प्रणाली के अंग बनें न कि सत्ता के उपभोग हेतु......
 
मालिक के अब निद्रा त्यागने और अंगडाई लेने का समय आ गया है........
 हमारे जागने से  खलबली मचने लगी  है........
सही समय पर वार आवश्यक है........

क्या आप तैयार हैं ????