एक स्नेहिल पाती मेरे आंदोलनकारी भाइयों व साथी कार्यकर्ताओं के नाम -
याद है हम सब मिलकर अपने अपने जिलों में अपने घरों से निकल कर आये थे भ्रष्टाचार के विरुद्ध ...
ना कोई आधार और ना ही कोई स्वार्थ बस एक जूनून था कि व्यवस्था को बदल डालेंगे और अपनी मातृभूमि को भ्रष्टाचार मुक्त कर के ही दम लेंगे ....
कई बाधाएं आयीं , लाठियां खाईं और जेल यात्रा भी की परंतु कभी ना टूटे ....
वो जूनून हम सब को एकता की डोर में पिरोये रहा ...
आदरणीय अन्ना जी ने राजनैतिक विकल्प की घोषणा की ....
हम में से बहुत असहमत थे परंतु हम ने अपने नेता पर विश्वास रखा ...
हम ने राजनैतिक पार्टी बनायी ...
आदरणीय अन्ना जी का रुख बदला और उन्होंने पार्टी से हाथ खींच लिया ....
हम ने उन पर श्रद्धा ना खोयी और साथ ही अपने लीडर पर भरोसा भी ना खोया और बहुत अपशब्द सुने पर लीडर पर विश्वास कायम रखा ....
पूरे जूनून के साथ दिल्ली चुनाव में हिस्सा लिया और जीते भी ...
ना चाहते हुए दिल्ली में सरकार बनायी और फिर उसे छोड़ने की भूल भी की ...
बहुत उतार चढ़ाव आये परंतु हमारा अपने लीडर पर से विश्वास डावांडोल नहीं हुआ ...
फिर दिल्ली में अभूतपूर्व विजय हासिल की ...
जो कि सब को दूर की कौड़ी लग रही थी...
पर
अरविन्द जी का विश्वास था जो हम टूटे हुओं को प्रेरित कर रहा था ...
हमारी जीत हुई ...
इस जीत के बाद ऐसा क्या हुआ कि कुछ साथी अरविन्द जी पर विश्वास खोने लगे ?
सच तो ये है कि उन्होंने विश्वास खोया नहीं अपितु उन की स्वराज के प्रति निष्ठा को कुछ स्वार्थी तत्वों ने अपने निहित स्वार्थ की लड़ाई में काम में लेने की कोशिश की ...
मुझे मालूम है कि मेरे साथी भाई और बहन मेरे इस प्रश्न को गौर से पढ़ेंगे और मनन करेंगे ...
जब हम सड़कों पर भरी धूप में आंदोलन कर रहे थे तो ये स्वराज के पुरोधा वातानुकूलित कक्ष में वंशवादी परम्परा की राजनीति खेलने वाली कांग्रेस के युवराज को राजनीति की शिक्षा दे रहे थे ...
*तब कहाँ था उन का स्वराज प्रेम ?
*जब वे पिछली राष्ट्रीय परिषद् की बैठक में संविधान संशोधन का गलत translation कर रहे थे तब कहाँ था उन का स्वराज ?
*जब वे हमें इसी बैठक में भेड़ बकरी की तरह हांक रहे थे तब कहाँ था उन का स्वराज प्रेम ?
*जब वे आँख के तारे थे तब पार्टी में स्वराज ही स्वराज था आज जब उन के स्वार्थ और अतिमहत्वाकांक्षा को पकड़ लिया गया और वे आँख की किरकिरी बन गए तो वे स्वराज का नारा लगाने लगे ?
अपनी आँखें खोलिए और इस स्वार्थ की लड़ाई से दूर कर लीजिये अपने आप को ...
पार्टी भी वो ही है और अपने लीडर भी नहीं बदले...
अपने आप पर विश्वास ना खोइए ...
स्नेहाशीष के साथ
आप की बहन
याद है हम सब मिलकर अपने अपने जिलों में अपने घरों से निकल कर आये थे भ्रष्टाचार के विरुद्ध ...
ना कोई आधार और ना ही कोई स्वार्थ बस एक जूनून था कि व्यवस्था को बदल डालेंगे और अपनी मातृभूमि को भ्रष्टाचार मुक्त कर के ही दम लेंगे ....
कई बाधाएं आयीं , लाठियां खाईं और जेल यात्रा भी की परंतु कभी ना टूटे ....
वो जूनून हम सब को एकता की डोर में पिरोये रहा ...
आदरणीय अन्ना जी ने राजनैतिक विकल्प की घोषणा की ....
हम में से बहुत असहमत थे परंतु हम ने अपने नेता पर विश्वास रखा ...
हम ने राजनैतिक पार्टी बनायी ...
आदरणीय अन्ना जी का रुख बदला और उन्होंने पार्टी से हाथ खींच लिया ....
हम ने उन पर श्रद्धा ना खोयी और साथ ही अपने लीडर पर भरोसा भी ना खोया और बहुत अपशब्द सुने पर लीडर पर विश्वास कायम रखा ....
पूरे जूनून के साथ दिल्ली चुनाव में हिस्सा लिया और जीते भी ...
ना चाहते हुए दिल्ली में सरकार बनायी और फिर उसे छोड़ने की भूल भी की ...
बहुत उतार चढ़ाव आये परंतु हमारा अपने लीडर पर से विश्वास डावांडोल नहीं हुआ ...
फिर दिल्ली में अभूतपूर्व विजय हासिल की ...
जो कि सब को दूर की कौड़ी लग रही थी...
पर
अरविन्द जी का विश्वास था जो हम टूटे हुओं को प्रेरित कर रहा था ...
हमारी जीत हुई ...
इस जीत के बाद ऐसा क्या हुआ कि कुछ साथी अरविन्द जी पर विश्वास खोने लगे ?
सच तो ये है कि उन्होंने विश्वास खोया नहीं अपितु उन की स्वराज के प्रति निष्ठा को कुछ स्वार्थी तत्वों ने अपने निहित स्वार्थ की लड़ाई में काम में लेने की कोशिश की ...
मुझे मालूम है कि मेरे साथी भाई और बहन मेरे इस प्रश्न को गौर से पढ़ेंगे और मनन करेंगे ...
जब हम सड़कों पर भरी धूप में आंदोलन कर रहे थे तो ये स्वराज के पुरोधा वातानुकूलित कक्ष में वंशवादी परम्परा की राजनीति खेलने वाली कांग्रेस के युवराज को राजनीति की शिक्षा दे रहे थे ...
*तब कहाँ था उन का स्वराज प्रेम ?
*जब वे पिछली राष्ट्रीय परिषद् की बैठक में संविधान संशोधन का गलत translation कर रहे थे तब कहाँ था उन का स्वराज ?
*जब वे हमें इसी बैठक में भेड़ बकरी की तरह हांक रहे थे तब कहाँ था उन का स्वराज प्रेम ?
*जब वे आँख के तारे थे तब पार्टी में स्वराज ही स्वराज था आज जब उन के स्वार्थ और अतिमहत्वाकांक्षा को पकड़ लिया गया और वे आँख की किरकिरी बन गए तो वे स्वराज का नारा लगाने लगे ?
अपनी आँखें खोलिए और इस स्वार्थ की लड़ाई से दूर कर लीजिये अपने आप को ...
पार्टी भी वो ही है और अपने लीडर भी नहीं बदले...
अपने आप पर विश्वास ना खोइए ...
स्नेहाशीष के साथ
आप की बहन
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